भारतीय पांडुलिपियां

    भारत की पांडुलिपियों ने विश्व की कल्पना को सदियों में आबद्ध किया है। सातवीं शताब्दी में भी चीनी यात्री हेंगसांग भारत से सैकड़ों पांडुलिपियां ले गए थे। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अवध के नवाब ने इंगलैंड के सम्राट जॉर्ज तृतीय को पदशाहनामा की उत्कृष्ट सुसज्जित पांडुलिपि भेंट की थी। आज इसे राजशाही संग्रह में उत्कृष्टतम वस्तुओं में से एक माना जाता है। जब अंगरेजी ईस्ट इंडिया कंपनी पहली बार भारत आई, उन्होंने इस उप महाद्वीप को एक महान और उन्नत सभ्यता का जनक माना जिसमें बौद्धिक और कलात्मक उद्यम की प्रचुरता थी। महान विद्वानों ने इस उप महाद्वीप की संस्कृति के उन अनेक पक्षों में गहरी रूचि ली, जो ताड़ के पत्ते, कागज, कपड़े और यहां तक कि सोना और चांदी सहित विभिन्न सामग्रीपर हस्तलिखित पांडुलिपियों के विशाल भंडार में जाए जाते है।

    सूचीपत्र करने का प्रारंभिक चरण
    वर्ष 1803 में ‘’वर्तमान में मौजूद सभी अत्यंत उपयोगी भारतीय कृतियों का उनके विषय – वस्तु के सार सहित सूचिपत्र’’ तैयार करने का विचार एशियाटिक सोसाइटी को सौंपा गया (जैसाकि एम.एल.सैनी के ‘’भारतीय भाषाओं में पांडुलिपि साहित्य’’, आईएलए बुलेटिन, 5.1, जनवरी – मार्च 1969, पृष्ठ 6-21 पर पर उद्घृत किया गया है)। चार वर्ष बाद सोसाइटी के चौथे अध्यक्ष के रूप में एचटी कोलब्रूक ने ऐसे सूचीपत्र तैयाकर करने का कार्य करने के लिए प्रति वर्ष पांच अथवा छ: हजार रूपए का अतिरिक्त अनुदान अलग रखने के लिए सरकार से अपील की। भारत में संस्थान निर्माण (अन्य के साथ-साथ बनारस संस्कृत कॉलेज,तीन प्रेसिडेंसियों में विश्वविद्यालय और ओरिएंटल अनुसंधान संस्थान) तथा पश्चिमी शिक्षा के उदय के उत्कट चरण में प्राच्य लोगों द्वारासूचीपत्र बनाने का प्रारंभिक चरण प्रारंभ हुआ।

    नया कैटेलोग्स कैटेलोगोरम
    इसी बीच भारतीय उपमहाद्वीप के यूरोपीय विद्वानों ने प्राप्त पांडुलिपियों के आधार पर प्राचीन और मध्यकालीन साहित्य तथा वैज्ञानिक कृतियों का ऐतिहासिक अनुवाद करना प्रारंभ कर दिया था। वर्ष 1849 में ऋग्वेद का एफ. मैक्स मुलर किया गया अनुवाद ऐसी ही एक ऐतिहासिक घटना थी। संस्कृत पांडुलिपियों औफ्रेच कैटेलोगस कैटेलोगोरम (‘’सूचीपत्रों का सूचीपत्र’’) का प्रकाशन ऐसी ही एक अन्य ऐतिहासिक घटना थी जिसे काफी व्यक्तिगत प्रयास और खर्च पर समेकित किया गया। मैसूर संस्थान के महान पुस्तकालयाध्यक्ष, आर.शामा शास्त्री, मद्रास विश्वविद्यालयने वर्ष 1937 में नए कैटेलोग्स कैटेलोगोरम का प्रकाशन प्रारंभ किया तथा ‘बीएच’ अक्षर तक पहुंचे। पहले चौदह खंडों के प्रकाशन के बाद यह परियोजना बंद कर दी गई।

    भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू भारत की बौद्धिक विरासत से अवगत थे जिन्होंने यह सुनिश्चित करने में व्यक्तिगत रूचि ली कि ईसा पूर्व छठी शताब्दी से भारत की प्राचीनतम पांडुलिपियों का काल निर्धारित करने के लिए गिलगित पांडुलिपियों को कश्मीर से राष्ट्रीय अभिलेखागार में लाया जाए ताकि भावी पीढ़ी के लिए इसे संरक्षित किया जा सके।