फील्ड-अनुभव
    कुछ मनभावन अनुभव और उत्साहजनक परिणाम !

    पाण्डुलिपियों को बचाने के लिए हाथ से हाथ मिलानाः

    बास्गो एक खास उदाहरण है कि कैसे पाण्डुलिपियों की सुरक्षा और रख-रखाव में स्थानीय प्रयास महत्त्वपूर्ण होते हैं। बास्गो लेह के निकट एक छोटा कस्बा है। यहां सदियों से बहुत बड़ी संख्या में लिखी गई पाण्डुलिपियों को स्थानीय मठ में संग्रहीत किया जाता था। अतीत में किसी समय स्थानीय शासकों द्वारा इन्हें जब्त कर लिया गया था और उन्होंने इन्हें बास्गो महल में रख दिया। उनका ठीक से रखरखाव नहीं किया गया था, उनमें से कई फट गईं थी और बचे हुए सभी पर्ण आपस में मिल गए थे।

    कस्बे में रहने वाले निवासियों ने इन हजारों पर्णों को बचाने के लिए स्वयं प्रयास किया। राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन तथा केन्द्रीय बौद्ध अध्ययन संस्थान (मिशन का एमआरसी) ने प्रशिक्षित प्रलेखकार और संरक्षक उपलब्ध कराकर उनके प्रयासों को पूर्ण सहायता दी। प्रत्येक दिन 8-10 स्वयं सेवक दिन में 10 घंटे तक बारी-बारी उनको अलग करने और व्यवस्थित करने का कार्य करते थे। स्वयं सेवकों का प्रत्येक बैच पाण्डुलिपियों से संबंधित कार्य करने के लिए अपने संबंधित नौकरियों से एक सप्ताह की छुट्टी लेता है। पर्णों को पहले दो समूहों में बांटा जाता है-पहला मैटलिक स्याही (सोना, चांदी, तांबा) से काले हस्तनिर्मित कागज पर लिखा हुआ और दूसरा जो लाल अथवा काली स्याही से हस्तनिर्मित सफेद कागज पर लिखा गया है। इसके बाद, जो बात इस प्रक्रिया को जटिल बनाती है वह एक ही संस्करण की विभिन्न प्रतियों के बीच लिपि/पर्णों का आकार अलग-अलग होना है। अतः एक-एक पर्ण को अलग करना तुलनात्मक रूप से आसान होता है, जबकि किसी खास पाण्डुलिपि के सेट से पर्णों के एक सेट का मेल कराना काफी कठिन हो जाता है। कठिनाइयों के बावजूद पाण्डुलिपियों के कुछ सेटों को पहले ही अलग कर लिया गया है और उन्हें उनके मूल स्थान बास्गो गोम्पा को लौटा दिया गया है (फोटो, केआर से अगस्त, 05)।

    माजुली में पाण्डुलिपि परंपरा:

    असम के जोरहाट जिले में स्थित माजुलीी

     द्वीप वैष्णव धर्म का एक केन्द्रीय स्थल है। यहाँ सत्रीय संस्कृति में यह अपनी पूर्ण आभा के साथ मौजूद है। माजुली में लगभग 22 सत्र हैं। इन सब की स्थापना श्री शंकर देव के अनुयायियों द्वारा की गई थी। सभी सत्रों में पाण्डुलिपियों का संग्रह है तथा माजुली में पाण्डुलिपियों की कुल संख्या लगभग 4000 है। वे अधिकतर सांचीपत (अगरु पेड़ की छाल) पर लिखे गए हैं और इस पर धर्म, औषधि, ज्योतिष जैसे विषय लिखे गए हैं। इनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण हैं- चरित-पुथी, साधुओं के जीवन पर रचित रचना और दक्षिणपात सत्र में पुराण, हस्ति-विद्यार्णव, अवनीआटी सत्र में हाथियों से संबंधित ग्रंथ। कइयों का विश्वास है कि मूल पाठ शंकर देव और माधव देव द्वारा लिखा गया है।

    ये रचनाएं वैष्णव भक्ति की रचनाएं भी है। सत्र का मुख्य पुजारी सुबह और शाम एक-एक घंटा दिन में दो बार पाण्डुलिपियों की पूजा-अर्चना करता है। इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि मुख्य मंदिर परिसर में यह पाण्डुलिपि ही होती है, किसी भगवान की मूर्ति नहीं है, जिसकी उपासना की जाती है। मुख्य पुजारी श्रद्धापूर्वक पाण्डुलिपि के समक्ष अपना सिर झुकाता है, इसे खोलता है और इसे पढ़ना शुरू करता है। इन पाण्डुलिपियों को सरसों के तेल के लैंप की ज्योति में पढ़ना एक परंपरा है। पुजारी उस स्थान को चिह्नित करता है जहां उसने दिन में उसे पढ़ना समाप्त किया है और इसे लपेटकर रखता है। वह पाण्डुलिपि जिसकी पूजा अर्चना की जाती है वह मूल की एक प्रति है, जिसे कभी-कभी ही लोगों के सामने रखा जाता है। (केआर फरवरी, 2006 में फोटो)

    बास्गो एक खास उदाहरण है कि कैसे पाण्डुलिपियों की सुरक्षा और रख-रखाव में स्थानीय प्रयास महत्त्वपूर्ण होते हैं। बास्गो लेह के निकट एक छोटा कस्बा है। यहां सदियों से बहुत बड़ी संख्या में लिखी गई पाण्डुलिपियों को स्थानीय मठ में संग्रहीत किया जाता था। अतीत में किसी समय स्थानीय शासकों द्वारा इन्हें जब्त कर लिया गया था और उन्होंने इन्हें बास्गो महल में रख दिया। उनका ठीक से रखरखाव नहीं किया गया था, उनमें से कई फट गईं थी और बचे हुए सभी पर्ण आपस में मिल गए थे।

    कस्बे में रहने वाले निवासियों ने इन हजारों पर्णों को बचाने के लिए स्वयं प्रयास किया। राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन तथा केन्द्रीय बौद्ध अध्ययन संस्थान (मिशन का एमआरसी) ने प्रशिक्षित प्रलेखकार और संरक्षक उपलब्ध कराकर उनके प्रयासों को पूर्ण सहायता दी। प्रत्येक दिन 8-10 स्वयं सेवक दिन में 10 घंटे तक बारी-बारी उनको अलग करने और व्यवस्थित करने का कार्य करते थे। स्वयं सेवकों का प्रत्येक बैच पाण्डुलिपियों से संबंधित कार्य करने के लिए अपने संबंधित नौकरियों से एक सप्ताह की छुट्टी लेता है। पर्णों को पहले दो समूहों में बांटा जाता है-पहला मैटलिक स्याही (सोना, चांदी, तांबा) से काले हस्तनिर्मित कागज पर लिखा हुआ और दूसरा जो लाल अथवा काली स्याही से हस्तनिर्मित सफेद कागज पर लिखा गया है। इसके बाद, जो बात इस प्रक्रिया को जटिल बनाती है वह एक ही संस्करण की विभिन्न प्रतियों के बीच लिपि/पर्णों का आकार अलग-अलग होना है। अतः एक-एक पर्ण को अलग करना तुलनात्मक रूप से आसान होता है, जबकि किसी खास पाण्डुलिपि के सेट से पर्णों के एक सेट का मेल कराना काफी कठिन हो जाता है। कठिनाइयों के बावजूद पाण्डुलिपियों के कुछ सेटों को पहले ही अलग कर लिया गया है और उन्हें उनके मूल स्थान बास्गो गोम्पा को लौटा दिया गया है (फोटो, केआर से अगस्त, 05)।

    माजुली में पाण्डुलिपि परंपरा:

    असम के जोरहाट जिले में स्थित माजुलीी

     द्वीप वैष्णव धर्म का एक केन्द्रीय स्थल है। यहाँ सत्रीय संस्कृति में यह अपनी पूर्ण आभा के साथ मौजूद है। माजुली में लगभग 22 सत्र हैं। इन सब की स्थापना श्री शंकर देव के अनुयायियों द्वारा की गई थी। सभी सत्रों में पाण्डुलिपियों का संग्रह है तथा माजुली में पाण्डुलिपियों की कुल संख्या लगभग 4000 है। वे अधिकतर सांचीपत (अगरु पेड़ की छाल) पर लिखे गए हैं और इस पर धर्म, औषधि, ज्योतिष जैसे विषय लिखे गए हैं। इनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण हैं- चरित-पुथी, साधुओं के जीवन पर रचित रचना और दक्षिणपात सत्र में पुराण, हस्ति-विद्यार्णव, अवनीआटी सत्र में हाथियों से संबंधित ग्रंथ। कइयों का विश्वास है कि मूल पाठ शंकर देव और माधव देव द्वारा लिखा गया है।

    ये रचनाएं वैष्णव भक्ति की रचनाएं भी है। सत्र का मुख्य पुजारी सुबह और शाम एक-एक घंटा दिन में दो बार पाण्डुलिपियों की पूजा-अर्चना करता है। इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि मुख्य मंदिर परिसर में यह पाण्डुलिपि ही होती है, किसी भगवान की मूर्ति नहीं है, जिसकी उपासना की जाती है। मुख्य पुजारी श्रद्धापूर्वक पाण्डुलिपि के समक्ष अपना सिर झुकाता है, इसे खोलता है और इसे पढ़ना शुरू करता है। इन पाण्डुलिपियों को सरसों के तेल के लैंप की ज्योति में पढ़ना एक परंपरा है। पुजारी उस स्थान को चिह्नित करता है जहां उसने दिन में उसे पढ़ना समाप्त किया है और इसे लपेटकर रखता है। वह पाण्डुलिपि जिसकी पूजा अर्चना की जाती है वह मूल की एक प्रति है, जिसे कभी-कभी ही लोगों के सामने रखा जाता है। (केआर फरवरी, 2006 में फोटो)

    उन्नाव में सर्वेक्षण:

    उन्नाव, उत्तर प्रदेश में जिला समन्वयक डॉ. मृदुला पंडित ने 29 नवंबर, 2005 और 03 दिसंबर, 2005 के बीच सर्वेक्षण आयोजित किया था जिसमें कुल 48 सर्वेक्षक, कई स्वयं सेवक और तीन जीप शामिल थी। जिला आयोजन, जिसमें जिला मजिस्ट्रेट सम्मानीय अतिथि थे, के साथ एक जनपहुंच कार्यक्रमों की श्रृंखला के साथ-साथ नुक्कड़ नाटक के माध्यम से निकट भविष्य में होने वाले सर्वेक्षण के बारे में जिले में प्रचार किया था। मिशन के दो सदस्य, सर्वेक्षकों को प्रशिक्षण देने तथा क्षेत्र में लोगों के साथ बातचीत करने के लिए उन्नाव गए थे।

    सर्वेक्षण के लिए निर्धारित मुख्यालय, जिला पुस्तकालय से प्रत्येक दिन डॉ. पंडित के सर्वेक्षक कार्य शुरू करते थे और दिन में कम से कम दो बार उन्हें रिपोर्ट करते थे। सर्वेक्षकों और स्वयं सेवकों को आसानी से पहचानने के लिए एनएमएम टोपियां दी गई थीं। जिला मजिस्ट्रेट ने भी प्रयास में सहयोग किया था और एक ब्लॉक से दूसरे ब्लॉक तक सर्वेक्षकों की आवाजाही की सुविधा के लिए कुछ गाड़ियां उपलब्ध कराई थीं। डॉ. पंडित कहती हैं कि “मैं भी सर्वेक्षकों के साथ जिले में चारों ओर जाती थी। एक बार हम एक ऐसे कच्चे घर के सामने पहुंचे, जिसे तोड़ा जाना था। हमने देखा कि लगभग 30 पाण्डुलिपियों को बिना किसी सावधानी के पास के कचरे के डिब्बे में फेंक दिया गया था। हमने तुरंत उन्हें उठाया और घर के मालिक हमें पाण्डुलिपियों को देकर काफी प्रसन्न हुए थे।” अंत में लगभग 25,000 पाण्डुलिपियां प्राप्त हुई थीं और लगभग 3000 डेटाशीट भरे गए थे। समुदाय के पुराने सदस्यों जिन्होंने सर्वेक्षण में भाग लिया था, को धन्यवाद देते हुए डॉ. पंडित ने उन्हें प्रमाणपत्र और शॉल प्रदान किया।

    अन्य बहुमूल्य प्राप्त सामग्रियों में से एक क्विंटल की महाभारत तथा 10 मीटर लंबा कुरान था!

    लिपि की खोज !

    असम की बराक घाटी में राष्ट्रीय सर्वेक्षण के दौरान, सर्वेक्षकों को कुछ पाण्डुलिपियां और कुछ मुद्रित पुस्तिकाएं एक अज्ञात और एक खास लिपि में प्राप्त हुई थीं। यह लिपि क्षेत्र में रहने वाले निवासियों को भी कम ही ज्ञात है और न ही घाटी से बाहर के लोगों को पता है। जांच से पता चला कि यह लिपि सिलहटी नागरी लिपि है जिसे जलालावाड़ी नागरी के रूप में भी जाना जाता है। यह देवनागरी, बंगाली वर्णों, पारसी-अरबी स्वर विज्ञान अथवा शब्दों का संयोजन है। इसे मुख्यतया मध्यकाल में सिलहट, कछार और मयोंगसेंग के कुछ भाग तथा त्रिपुरा में मुसलमानों द्वारा उपयोग किया जाता था। पाठ, जिसे सिलहट नागरी में लिखा हुआ माना जाता है, में हजरत मोहम्मद के जीवन काल तथा पुराणों की कहानियां हैं, जिसमें भवानंद द्वारा रचित हरिवंश रचना शामिल हैं।