इतिहास
    मिशन

    राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन की स्थापना पर्यटन और संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा फरवरी, 2003 में की गई थी| अपने कार्यक्रम और अधिदेश में विलक्षणता लिए हुए इस परियोजना के माध्यम से मिशन का उद्देश्य भारत की विशाल पाण्डुलिपीय सम्पदा को अनावृत करना और उसको संरक्षित करना है| भारत लगभग पांच मिलियन पाण्डुलिपियों से समृद्ध है जो संभवत: विश्व का सबसे बड़ा संकलन है| इसमें सम्मिलित हैं: अनेक विषय, पाठ संरचनाएं और कलात्मक बोध, लिपियां, भाषाएं, हस्तलिपियां, प्रकाशन और उद्बोधन| संयुक्त रूप से ये भारत के इतिहास, विरासत और विचार की ‘स्मृति’ हैं ये पाण्डुलिपियां अनेक संस्थानों तथा निजी संकलनों में प्राय: उपेक्षित और अप्रलेखित स्थिति में देशभर में और उसके बाहर भी बिखरी हुई हैं| राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन का उद्देश्य अतीत को भविष्य से जोड़ने तथा इस देश की स्मृति को उसकी आकांक्षाओं से मिलाने के लिए इन पाण्डुलिपियों का पता लगाना, उनका प्रलेखन करना, उनका संरक्षण करना और उन्हें उपलब्ध कराना है|

    अतीत से जुड़ना: एक संक्षिप्त इतिहास

    भारत की पाण्डुलिपियों ने शताब्दियों से विश्व को आकर्षित किया है| पूर्व की सातवीं शताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत से सहस्त्र पाण्डुलिपियां अपने साथ ले गया| बाद में 18वी शताब्दी में अवध के नवाब ने पंचशाहनामा की शानदार प्रस्तुति वाली पाण्डुलिपि को इंगलैंड के किंग जॉर्ज III को भेंट में दे दिया| आज उसे शाही संकलन का सबसे बेहतरीन नमूना माना जाता है| जब इंगलिश ईस्ट इंडिया कम्पनी सबसे पहले भारत में आई तो उन्होंने इस उप-महाद्वीप को महान और समृद्ध सभ्यता के तौर पर मान्यता दी जिसमें बौद्धिक और कलात्मक उद्यमों की बहुतायत है| अनेक कम्पनी अधिकारियों ने भाषाओं, दर्शन, कला और वास्तु सहित भारतीय सभ्यता के विभिन्न पहलुओं के प्रति एक आकर्षण विकसित कर लिया| आरंभिक उन्नीसवीं शताब्दी में रॉयल एशियाटिक जर्नल के आरंभिक अंकों में सभी भारतीय वस्तुओं में जिज्ञासा पूर्णत: परिलक्षित होती है|

    अनेक असामान्य व्यक्तियों में से जिन्होंने अठारहवीं शताब्दी के अंतिम दशकों और आरंभिक उन्नीसवीं शताब्दी में पूर्ववासी (ओरिएंटलिस्ट) का प्रथम समूह निर्मित किया और जिन्होंने भारतीय उप-महाद्वीपीय सभ्यता के विभिन्न पहलुओं का व्यवस्थित अध्ययन किया और उसे प्रभावित किया, वे प्रख्यात भाषाविद् और एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल के संस्थापक, तेलुगू के विद्वान सी.पी. ब्राउन, यात्री और पूर्वी भाषा विद्वान जॉन लेडन, भारत के प्रथम महासर्वेक्षक कोलिन मैंकेंज़ी, संस्कृत विद्वान चार्ल्स विल्किंस, अनेक संस्कृत कार्यों के अनुवादक एच.एच. विल्सन और बहुमुखी ओरिएंटलिस्ट एच.टी. कोलब्रुक थे| इन सभी महान विद्वानों ने उप-महाद्वीप की बहुमुखी संस्कृति में काफी रुचि दिखलाई जैसा कि ताड़ के पत्तों, कागज, वस्त्र और स्वर्ण और चांदी सहित विभिन्न सामग्रियों पर हस्तलिखित बृहद सम्पदा में परिलक्षित होता है| उनके अनेक निजी संकलन ब्रिटेन में भारतीय कार्यालय पुस्तकालय और अन्य स्थानों तथा भारत में संस्थानों में संकलित है|

    विगत 1803 में “इस समय मौजूदा सर्वाधिक उपयोगी भारतीय कार्यों तथा उनकी सामग्री के सार सहित उनका कैटलॉग” का विचार एशियाटिक सोसायटी के समक्ष रखा गया था (जैसा कि आईएलए बुलेटिन, 5.1, जनवरी-मार्च 1969, पीपी 6.21 में एम.एल. सैनी “मैन्यूस्क्रिप्ट लिटरेचर इन इंडियन लैंग्वेजिज़” में उद्धृत है)| पांच वर्ष पश्चात सोसायटी के चौथे अध्यक्ष के तौर पर एच.टी. कोलग्रुप ने सरकार से इस प्रकार के कैटलॉग (आईबीआईडी) को बनाने के लिए प्रति वर्ष पांच अथवा छह हजार रुपये का अतिरिक्त अनुदान निर्धारित करने की अपील की| जबकि कम्पनी ने निधियां जारी नहीं की तथापि ओरिएंटलिस्टों द्वारा कैटलॉग पहले से तैयार किया जा रहा था| टीईएस