स्वदेशी विधियां

    भारत की बहुमूल्य विरासत का रखरखाव, देखभाल और संरक्षण की स्पष्ट समस्या के कारण मिशन पाण्डुलिपि संरक्षण पर जोर देता है। संरक्षण का ज्ञान भारतीयों के लिए नया नहीं है। अतीत में पाण्डुलिपियों की देखभाल एक बड़ी समस्या थी और उनके विभिन्न कारकों से नष्ट होने से बचाने के लिए प्रयास किए गए थे। इन अपकर्षक कारकों में से सबसे महत्वपूर्ण जैविक-विकास था। पाण्डुलिपियों को बचाने के लिए उपयोग की जाने वाली विधियां जड़ी- बूटियों और अन्य प्राकृतिक सामग्रियों के अनुभव और ज्ञान पर आधारित थीं और इन प्रथाओं को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाया गया था। सदियों से भारत में इन संग्रहों के संरक्षकों ने अपनी पाण्डुलिपियों के संरक्षण के लिए विभिन्न प्राकृतिक सामग्रियों का उपयोग किया है। संरक्षण के क्षेत्र में नई प्रौद्योगिकियों के आगमन के साथ, और सामाजिक एवं जीवन प्रणालियों में हुए बदलावों के साथ परंपरागत प्रथाओं और संरक्षण प्रणालियों में कमी आई है। साथ ही, संरक्षण के लिए उपयुक्त रसायनों के आगमन के बावजूद, भारत में कुछ पुस्तकालयों और पाण्डुलिपि संग्रहालयों में संरक्षण की पारंपरिक पद्धतियाँ अपनाई जाती हैं।

    कीटों के हमले का सामना करने के लिए वर्तमान में उपयोग की जाने वाली अधिकांश आधुनिक सामग्री अपेक्षाकृत कठोर और जहरीली होती है। इसलिए उपयोग की जा रही पारंपरिक सामग्रियों का पुनर्मूल्यांकन करना और कुछ संशोधनों के साथ उनके उपयोग की संभावना का पता लगाना महत्वपूर्ण है। यदि आवश्यक हो तो, परंपरागत कीटनाशकों को, एक ही समय में, गैर-रासायनिक तरीकों के पक्ष में बहुत आसानी से खारिज नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि उन उत्पादों के साथ काम करना बेहतर होता है जिनके पीछे लंबा इतिहास हो और जिसके संबंध में उनके लाभ और नुकसान संबंधी बहुत सारी जानकारी उपलब्ध हो।

    कई कारणों से स्वदेशी ज्ञान महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि स्थानीय ज्ञान कम दुष्प्रभावों सहित विकास समाधान के लिए सबसे अच्छा हल ढूंढ़ने में मदद कर सकता है और स्वदेशी ज्ञान उन सफल तरीकों का प्रतिनिधित्व करता है, जिसकी सहायता से हमारे पूर्वजों ने समृद्ध विरासत का संरक्षण किया है। उपयुक्त समाधान तैयार करने के लिए मौजूदा ज्ञान का उपयोग करने का बार-बार उल्लेख पूरे विकास साहित्य में मिलता है। स्वदेशी ज्ञान का उपयोग संस्कृति के लिए सर्वोत्तम समाधान ढूंढने में मदद कर सकता है क्योंकि, सृजित समाधान आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से सहायता किए जाने वाले समाज के लिए स्वीकार्य होने चाहिए।

    मिशन ने संरक्षिका नामक सेमिनार श्रृंखला के दौरान फरवरी, 2005 में दिल्ली में एक सेमिनार आयोजित किया था, जो कि मौखिक परंपराओं और पाण्डुलिपियों के परिरक्षण और संरक्षण के स्वदेशी तरीकों पर कार्य करता था। अतः सेमिनार में प्रस्तुत शोधपत्र पाण्डुलिपियों में निहित मूर्त और अमूर्त ज्ञान और इस समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने की आवश्यकता दोनों से संबंधित थे। पुरानी तकनीकों और संरक्षण के तरीकों के बारे में जानकारी देने के अलावा, शोध पत्रों में इन तरीकों को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता के बारे में बात कही गई थी, चूंकि वे कम खतरनाक और अधिक फायदेमंद हैं। यह सेमिनार तीन दिनों का था और इसने पाण्डुलिपि परिरक्षण और संरक्षण के क्षेत्र में विशेषज्ञों के लिए विचार विमर्श करने, अपने विचार प्रस्तुत करने और भविष्य के लिए योजना तैयार करने का पर्याप्त अवसर दिया।

    क्षेत्रीय संरक्षण प्रयोगशाला, मैसूर, जो कि राष्ट्रीय सांस्कृतिक संपदा संरक्षण अनुसंधानशाला, (एनआरएलसी), लखनऊ की एक क्षेत्रीय शाखा है, में संरक्षण के स्वदेशी तरीकों पर चल रहे शोध, भारत के कुछ हिस्सों में प्रयोग की जा रही विभिन्न स्वदेशी पद्धतियों के गुण और दोषों पर कुछ प्रकाश डालेंगे।